भुज। कच्छ के अंजार में टप्पर डैम के किनारे जीवाश्म पाए गए हैं। ये हिमालय में शिवालिक पर्वतमाला के आसपास पाए जाने वाले जीवाश्म की तरह ही हैं। कच्छ के टप्पर डैम से 1 करोड़, 5 लाख (10.5 मिलियन) वर्ष पुराने बंदर के जीवाश्म मिले हैं। जिसका अविष्कार और दावा कच्छ एनआरआई शोधकर्ता डॉ. हिरजी भुडिया ने किया है। बता दें, बंदर के जीवाश्म सबसे पहले 19वीं सदी में हिमालय में पाए गए थे। बंदर का यह जीवाश्म ‘मियोसीन’ युग का शिवालिक पिथेक्स है, जिसका ग्रीक भाषा में अर्थ बंदर होता है।
डॉ. भुड़िया के अनुसार टप्पर डैम के पास मिले जीवाश्मों में कंधे, हाथ और पैर की हड्डियां हैं। आज से 11 साल पहले टप्पर डैम के आसपास बंदर के दांत का जीवाश्म मिला था। इस जीवाश्म को देखने के बाद उन्होंने आगे की खोज के लिए टप्पर रेंज में जाने का फैसला किया। पिछले साल व्यस्त कार्यक्रमों के कारण वहां नहीं जा सके, लेकिन इस साल उन्होंने टप्पर डैम के आसपास डेरा डाला और शोध किया, इस दौरान इन जीवाश्मों को पाया। लंबी मेहनत के बाद वे इस जीवाश्म को ढूंढने में सफल हुए हैं और इस संबंध में और शोध कर रहे हैं।
डाॅ. भुड़िया ने कहा कि विकास के अनुसार बंदरों की प्रजाति से ही मनुष्य की रचना हुई है। हालांकि, ये बंदर इंसानों के पूर्वजों से थोड़े अलग थे। कुछ अन्य जीवाश्म विज्ञानी शिवालिक पिथेक्स को वर्तमान समय के ओरंगुटान और गोरिल्ला काे पूर्वज मानते हैं।
डॉ. भुड़िया माधापार के मूल निवासी हैं और वर्षों पहले लंदन में बस गए हैं। अतीत में वह जीके जनरल अस्पताल में अधीक्षक के रूप में भी कार्य कर चुके हैं।। डॉ. भुडिया ने अपनी पढ़ाई चिकित्सा में की है लेकिन वह पिछले कई वर्षों से जीवाश्म विज्ञान में व्यापक शोध कर रहे हैं।
टप्पर डैम के किनारे डेढ़ करोड़ साल पुराने बंदरों के जीवाश्म मिलने के बाद डॉ. भुड़िया ने कच्छ को जियोलॉजिकल विरासत घोषित करने की मांग की है। उन्होंने कहा कि कच्छ की धरा अनोखी है। इसे भूवैज्ञानिक विरासत घोषित करने के लिए पूरे कच्छ में समृद्ध स्थल
माैजूद हैं। गौरतलब है कि कुछ समय पहले माता ना मढ़ के पास जीएमडीसी खदान के पास वासुकी नागा के जीवाश्म मिलने की भी खूब चर्चा हुई थी।